Sunday 13 November 2016

अक्षरविज्ञान भाग ८

।। भाषा मनुष्यों को क्यों दी गई ।।

मनुष्य बिना नैमित्तिक ज्ञान पाये यदि अपने स्वाभाविक पोजीशन में रखा जाये तो वह उसी प्रकारका हो सकता है, जैसा अभी का पैदा हुआ बच्चा । वह खाने के लिये मुह चलाना, पीने के लिये घूँटना मात्र जानता है, पर क्या खाना क्या पीना आदि बिलकुल नहीं जानता । वह दूध पानी आदिको नहीं पहिचानता । जबतक माता स्तनको मुहमें न लगादे तबतक वह स्तनोंको भी नही ढूंढ सकता । सृष्टिकी आदि में यदि इस प्रकारकी पैदा हुई सृष्टि मानें तो वरवस माननी पडेगा कि ऐसी मनुष्य सृष्टि बिना माता पिता के एक दिन भी जी नहीं सकती । क्योंकि हम देखते है कि पलक मारना, छींकना, खासना, श्वास लेना, जम्हाई, रोना, हँसना, चलबलाना, घूँटना आदि ही मनुष्य का स्वाभाविक ज्ञान है । इसके अतिरिक्त ' यह पानी है ', ' यह दूध है ', 'यह स्तन है , यह माता है,' आदा रागस्त ज्ञान नैमित्तिक है । " खड़ा होना और दो पैरसे चलना भी नैमित्तिक है " क्योंकि जो लड़के भेड़ियोंकी मांदसे पाये गये है, सब चारों पावसे ही चलते देखे गये है । "हाथोंको मुंहमे लेजाना भी नैमित्तिक है" क्योंकि मांदमे पाये हुए मुंहसे ही खाते पीते देखे गये है । 'हाथ से कुछ पकडना तो बिलकुल ही नैमित्तिक है,' क्योंकि कई महिने तक लड़केकी मुठी ही नही खुलती 'इस प्रकार भाषा भी नैमित्तिक है,' क्योंकि मांदवाले लड़के सिवाय 'कूँ कूँ' के और कुछ भी बोलते हुए नहीं देखे गये । मतलब यह कि मनुष्य में जो कुछ मनुष्यता है, सब नैमित्तिक और ईश्वर के निमित्तासे है , कारण कि ' मनुष्यता' मनुष्य अथवा ईश्वर से ही सीखी जा सकती है । मनुष्यको मनुष्य बनाने वाला संसार में और दूसरा कोई प्राणी नहीं है ।

मनुष्य की इस असली हालत से समझ सकते हो कि आदि सृष्टि में उसको कितने निहायत जरूरी नैमित्तिक ज्ञानोंकी आवश्यकता थी । सबसे पहिले उसे खाने पीने अर्थात् जीवनयात्रा सम्बन्धी पदार्थोंकी पहिचान निहायत जरुरी थी । दूसरे इस अपरिचित अतएव अद्भुत सृष्टिका कुछ हाल जानना भी कम जरुरी नहीं था । तीसरे समस्त मनुष्यों में मिलकर एक दूसरों को सान्त्वना प्रेमालाप और शंका समाधान करके उचित व्यवस्था करनेका ज्ञान भी उतना ही आवश्यक था, जितना भोजन । चौथे मै कौन हूं, यहा क्यों आया किसने भेजा, मेरा सबसे अन्तिम कर्तव्य क्या है ? यह ज्ञान उपरोक्त तीनों ज्ञानोंसे भी अधिक जरूरी था ।
(वो लोग पशुओं की मिसाल देते हैं कि 'पशु बिना सिखाये खाते पीते और जीते है। उसी प्रकार मनुष्यों ने भी क्रम क्रम उन्नति की है' वे गलतीपर है । आजतक किसी पशुके बच्चेकी उसकी माँ का स्तन तलाश करने के लिये किसीने नहीं सिखलाया । वह पैदा होते ही खडे होकर अपनी माँ का स्तन ढूँढ लेता है, पर क्या कभी मनुष्य के बच्चे ने भी पैदा होते ही अपनी माँ का स्तन ढूँढ लिया है ? नही । अतः उसे नैमित्तिक ज्ञानकी निहायतजरुरत है ।)

उस समय- आदि सृष्टि के समय यदि इतना ज्ञान न दिया जाय तो मनुष्य भूख प्यास सरदी गर्मी से अपनी रक्षा न कर सके, सूर्य चन्द्र नदी समुद्र बन पर्वत मेघ गर्जन और विद्युत तथा सिंह व्याघ्र को देखकर घबरा जाय । शादी विवाह वंश स्थापन भी न हो सके और न अपना कर्तव्य जानकर अपने उस लक्ष्य ( मोक्ष ) को पहुँच सके, जिसके लिये वह पैदा किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि उनमें सूक्ष्म से सूक्ष्म विस्तृत से विस्तृत और विशद से विशद ज्ञान विद्यमान था । वे सृष्टि होने का कारण जान चुके थे । उन्हें बतला दिया गया था कि 'सूर्याचन्दरमसौ धाता यथा पूर्वकल्पयत्' ' शन्नो देवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये' 'ऊर्ज बृहन्तीरमृत धृतं पयः कीलाल परिस्रुतम्' ' त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी' ' कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतम्' 'ईशा वास्यम् इदम् सर्वम् ' 'समानी प्रषासहवो अन्नभागः' 'यथेमां वाचं मावदानि जनेभ्यः,' 'आदि अर्थात् मत घबराव' यह सूर्य चन्द्र वैसै ही है जैसै पहले कल्पमे थे' 'वह देखो जल तुम्हारे पीने के लिये है' 'घी दूध फल शहद खाने के लिऐ है,' 'तुम जीव हो कर्मोनुसार स्त्री पुरुष और अन्य पशुपक्षी आदि योनियों में जन्म पाते हो' 'कर्म करते हुऐ सौ वर्ष जीना' 'इस संसारका स्वामी 'ईश्वर' समझना और मोक्ष प्राप्त करना तथा सब मनुष्य मिल जुलकर खाना पीना' आपस में मिलजुलकर चलो बोलो बातचीत करो और सबको 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे मित्रदृष्टिसे देखो । इस प्रकारका सूक्ष्म और विशद ज्ञान उनको उसी समय दिया गया था । यह ज्ञान बिना भाषा के सहारे किसी प्रकार भी नहीं दिया जा सकता था और न बिना भाषा के यह ज्ञान स्थायी रहकर उनके वंशजोंको मिल सकता था, क्योंकि हम देखते है कि बिना भाषाके इस प्रकारका आद्यन्त (पूर्ण) सूक्ष्म ज्ञान 'गूंगे-बहरे मनुष्यों को शीघ्रतासे वा देरसे नहीं सिखलाया जा सकता और न वह गूंगा-बहरा किसी दूसरेंको ही कुछ सिखला सकता है' अतएव मानना पडेगा कि मूल पुरुषों को सूक्ष्म ज्ञान सिखाने और वह ज्ञान औरों में फौलाने के लिये उनको परमात्माने भाषा अवश्य दी ।

उपरोक्त सिद्धांतपर लोग शंका कर सकते है कि " जिस प्रकार बिना भाषाके सूक्ष्म ज्ञान नही सिखलाया जा सकता उसी प्रकार बिना किसी भाषाके भाषा भी तो नही सिखलाई जा सकती । जब आदि सृष्टि में मनुष्य किसी भाषाका बोलनेवाला था ही नही तो मूल पुरुषोंने भाषा किससे कैसै सिखी ?"

।। भाषा मनुष्य को कैसे दी गई ।।

भाषा सिखने के लिऐ मनुष्यों को मुहकी और जोरसे बोलने की जरुरत होती है । सृष्टि को देखकर भयभीत हुए मनकी शांति, समाज, और सन्तानकि शिक्षा, प्रेम और प्रबंध तथा अपने कर्तव्य पालनकी शिक्षा आदि के लिये आदि सृष्टि में ज्ञानकी आवश्यकता थी ।

प्र- भाषा और ज्ञानके सिखानेकी क्या आवश्यकता थी ? क्या क्रम 2 उन्नति नहीं हो सकती ?
उत्तर :- नहीं । यदि बिना सिखाये ज्ञान और भाषा आजाती तो स्कूल और कॉलेज क्यों खोले जाते ? सबलोग क्रम 2 उन्नति कर न लेता?

प्र- स्कूल विशेष ज्ञानके लिये खोले जाते है उस समय तो साधारण ज्ञानकी आवश्यकता थी ।
उत्तर :- उसी समय तो विशेष ज्ञानकी आवश्यकता थी, क्योंकि सब मनुष्य एक अपरिचित स्थान मे एकाएक आये थे ।

प्र- विना उस्ताद और बिना उस्तादके मुहके भाषा और ज्ञान कैसै सिखाया जा सकता है ?
उत्तर :- जिस प्रकार मेस्मरेजम करनेवाला अपने सब्जेक्टमे बिना सीखी हरकत और बिना सुनी हुई भाषा बोलवा देता है उसी प्रकार आन्तर्यामी पर मात्माने भी सिखाया ।

प्र- मनुष्योंको ही क्यों ज्ञान और भाषा सिखानेकी आवश्यकता हुई ?
उत्तर :- यद्यपि इसका वर्णन बहुत है तथापि सारंशरुपसे समझो कि मनुष्योंको मोक्ष प्राप्त करनेके लिये भाषा और ज्ञान दिया गया है ।

।। सबका ज्ञान और भाषा एक ही थी ? ।।

भाषाका मुख्य उद्देश्य आत्मरक्षा प्रामाणिक व्यवहार और मोक्ष है मनुष्य समाजप्रिय प्राणी है इसलिये उसमें समान बन्धन दृढ करनेके लिऐ - एक मन एक बुद्धि एक विचार होने के लिऐ ही परमात्माने उसे वाणी दी है । ऐसी दशा मे सबकी एक ही भाषा होनी चाहिये ।

भाषा ईश्वरदत्त है । वह निस्सन्देह सबके लिये सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, जल वायु, अग्नि, सर्दी गर्मीकी भाँति समान है । ऊपर हम सृष्टि नियमों के प्रमाणोंसे सिद्ध कर आये है कि भाषा निस्सन्देह देवदत्त है अतएव वह अवश्य एव निश्शसय सबकी एक ही थी तथापि हम यह दो एक युरोप के भाषा तत्व जानने वालोंकी गवाही देते है ।


युरोप में आजतक प्रो मैक्समूलरकी भाँति बहुभाषाज्ञानी कोई भी पंडित नहीं हुआ । पृथ्वी की 900 भाषाओथ को एक गहरी नजर से देखकर वह कहता है कि 'भाषाओं के बिगाडने का कारण मनुष्यकी असावधानी है' सेमिटिक भाषाओं को आर्य भाषा भाषाओं से पृथक् बतलाता हुआ भी मैक्समूलर आगे चलकर कहता है कि " आर्यभाषाओंके 'धातु' रस और अर्थ मे सेमिटिक अरालाटक, बन्टो, और ओशीनिया, की भाषाओं में मिलते है" अन्त में कहता है कि, 'निस्सन्देह मनुष्य की मूलभाषा एक ही थी "। इसीकी पुष्टी 'एण्डोजैक्सन डेविस' इस प्रकार करता है कि " भाषा भी जो एक आन्तरिक और सार्वजनिक साधन है, स्वाभाविक और आदि है ह भाषाके मुख्य उद्देश में कभी उन्नती का होना सम्भव नहीं , क्योंकि उद्देश सर्वदेशी और पूर्ण होते है, उनमें किसी प्रकार भी परिवर्तन नहीं हो सकता । वे सदैव अखण्ड और एकरस होते हैं ।( देखो हारमोनिया भाग 5 पृष्ठ 73 एण्डोजैक्सन डेविस ) इन विद्वानों ने भी वही सार्वजनिक साधन की दलीले दी देकर एक भाषाकी गवाही दी है ।

 ।। भाषा के साथ ज्ञान का संबंध? ।।

     भाषा मनुष्य को परमात्माने क्यों दी है, इसका वर्णन पूर्व प्रकरण में  आगया है । किन्तु यहा कुछ स्पष्ट रीतिमें दिखलाना चाहते है । भाषाका उद्देश सार्वजनिक साधन माना गया है, क्योंकि मनुष्य समाज के विना एक दिन जी नहीं सकता । संसार में समाजका दास जैसा मनुष्य है, दूसरा कोई प्राणी नहीं है । इसका कारण यह है कि ह अपना कोई भी काम विना दूसरे की मद्द कर नहीं सकता । पैदा होने के दिन से लेकर मृत्यूकी घड़ी  तक खेलने कूदने शादी विवाह धन उपार्जन बिमारी तकलीफ गरीबी अमीरी आदि सभी दशाओं में इसको मनुष्य  की दरकार होती है । मनुष्य  के साथ संबंध दृढ करपे का मात्र साधन भाषा है । इसी लिये भाषाको सार्वजनिक नाम दिया गया है । यदि मनुष्य को मनुष्य समाज में रहने की दरकार  न होतो उसे पाणी की भी दरकार न होगी । सच तो यह है कि प्राणी होकर भी वह किससे बोलेगा ?

     किन्तु विचार यह करना है कि भाषाके साथ अर्थका क्या संबंध है?  आप जरा गौरसे अपने मनमे देखे तो पता लगेगा कि बोलने के पहिले आपके मन में जो कुछ विचार उत्पन्न होते है उन्हीं को आप बोलते हैं । और प्रत्येक विचार को बाहर प्रकट करने के लिये आप पहिले ही से अपने पास शब्द पाते है । यदि कहीं कोई नया विचार सीखते है तो वहा भी विचार और तत्सम्बन्धी शब्द दोनो नये नये एक साथ सीखते है । मानो कोई विचार बिना शब्द और कोई शब्द बिना विचार के रही नहीं सकता । इसी लिये कहागया है कि शब्दका अर्थ के साथ उसी प्रकार का संबंध है, जिस प्रकार अग्नि और गर्मीका है । इसपर 'कोलरिक' कहता है कि 'भाषा मनुष्यका एक आत्मिक साधन है' जिसकी पुष्टि महाशय ट्रीनिचने इस प्रकार की है कि 'ईश्वर ने मनुष्य को प्राणी उसी प्रकार दी है, जिस प्रकार बुद्धि दी है, क्योंकि मनुष्यका विचार ही शब्द है, जो बाहर प्रकाशित होता है ।' ( देखो स्टडी ऑफ वर्डस् आर.सी.ट्रीनिच डी.डी. )

      इसमें ज्ञात होता है कि भाषाके साथ ज्ञान अर्थात् अर्थका संबंध बनावटी नहीं किंन्तु स्वाभाविक अतण्व वैज्ञानिक है ।

      हम इस शरीर में (जो परमात्माकी कलम से सिखाया गया है) ज्ञान और शब्दका घनिष्ट संबंध बड़ा ही विचित्र पाते है । अब प्रश्न वह है कि आप ज्ञान कहासे प्राप्त करते हैं?  पञ्च ज्ञानेन्द्रियों से न? अच्छा अब आप देखे कि जहा पञ्च ज्ञानेन्द्रिय है उन्हीं के बीच में उस ज्ञान को बाहर निकालने वाला मुख विद्यमान हे न? क्यों मुखपर पीठपर न बनाया गया? मैं तो कहता हूँ कि मुख अगर हाथ की हथेलीपर होता तो लेकचर खूब देते बनता और भोजन करने में सुविधा होती पर क्या मुख अपनी प्यारी सहचरी ज्ञानेन्द्रियों मे कभी जुदा रह सकता था? क्या कभी ऐसा हो सकता है कि 'नाम' और 'नामी' अलग अलग हों? यह रचना भी हमको एक लेकचर सुनाती है कि ज्ञान और शब्द का स्वाभाविक मेल है ।


       जब कोई आदमी कोई ऐसी चीज खाता है जिसको पहिले उसने कभी नहीं खाया और दूसरा आदमी जब पूछता है कि कहो इस पदार्थ का स्वाद कैसा है तो वह तबतक किसी भी शब्द द्वारा उस पदार्थ के स्वाद को नहीं समझा सकता, जबतक उस पदार्थ को पूछने वालों के मुँह मे रहकर उसके स्वाद का ज्ञान न करादे । क्या यह रहस्य हम मे यह नहीं कहता कि शब्द बिना ज्ञानके निरर्थक है । हमें इस विषय को उस प्राणी के साथ मिलाना चाहिये, जो ईश्वर की ओरसे दी गई है । और प्रश्न करना चाहिये कि क्या वह भाषा बिना ज्ञान के थी? उपरोक्त वर्णन ने सिद्ध करदिया है कि बिना ज्ञान के वाणी निरर्थक है । परमात्माका कोई भी काम निरर्थक हो नहीं सकता, क्योंकि उसने जब भाषाको सार्वजनिक साधन बनाकर दिया है तो उस भाषाका कोई अर्थ अथवा उसमें कोई ज्ञान न हो तो सार्वजनिक साधन ही क्या हुआ? क्या हूँ हूँ वा काँउ काँउ वाली भाषा से कोई सार्वजनिक काम चल सकता है? इसलिये मानना पडे़गा कि भाषाके साथ ज्ञान (अर्थ) का संबंध स्वाभाविक है ।

अक्षरविज्ञानं भाग ७ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/11/blog-post_10.html
अक्षरविज्ञानं भाग ९ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/11/blog-post_29.html

No comments:

Post a Comment