Thursday 10 November 2016

अक्षरविज्ञान भाग ७

" क्या मनुष्य कोई भाषा बोलता हुआ पैदा है "

पहले लेख मे दिये तीन प्रश्नों  मे से दो के उत्तर हम दे चुके जो यह प्रश्न थे :-

१) क्या आदि सृष्टि में मनुष्य का बाप मनुष्य ही था , अथवा विकासवाद ( डार्विन थ्योरी ) के अनुसार क्रमक्रम किन्ही दूसरे प्राणियों ( बन्दर ) की शक्लो में होता हुआ ' यह मनुष्य ' वर्त्तमान मनुष्य हुआ ?

२) क्या आदि सृष्टिमें ' मनुष्य सृष्टि ' किसी एक ही स्थान पर हुई, अथवा पृथ्वी के भिन्न भिन्न भागोंमें ?

अब तीसरे प्रश्न का उत्तर दे रहे है ।

३) क्या मनुष्य कोई न कोई भाषा बोलता हुआ ही पैदा हुआ, अथवा उसने क्रम क्रम बहुत दिनके बाद कोई भाषा बनाली ?


तीसरे प्रश्न का उत्तर ।

क्या मनुष्य कोई न कोई भाषा बोलता हुआ पैदा हुआ ? इस प्रश्न उत्तर में यद्यपि अधिक माथा मारी करनी व्यर्थ है तथापि हम कुछ दलीले और युरोप के विद्वानोंकी राये लिखेंगे । इस विषय में भारतवर्ष की अधिक रायें न लिखेंगे, क्योंकि यहाका पुरानेसे भी पुराना इतिहास, यहाकी फिलासफी( दर्शन), यहाका विज्ञान सभी एकस्वर होकर चिल्लाते है कि आदिसृष्टि में  मनुष्य सभी प्रकारके ज्ञान, भाषा, आचार और प्रबन्ध बुद्धियोंके सहित पैदा हुए थे, जहाँ की एकदम एकतरफा ऐसी डिगरी है वहाका प्रमाण उद्धृत करना भी न करने के बराबर है ।

भाषा विषय में हम देखते हैं कि हिन्दोस्तान का बच्चा जिस प्रान्त में पैदा होता है  अपने प्रान्तकी ही ( बंगला,  मराठी, गुजराती हिन्दी आदि) भाषा बोलने लगता है । प्रान्तकी नहीं किन्तु अपने गावकी विशेष कर अपने घरकी और ज्योंकी त्यों अपनी माताकी भाषा बोलता है । इसी लिये भाषाका ' मातृभाषा ' नाम पडा है । हिन्दोस्तान ही में क्यों ?  सारी पृथिवी के बच्चे अपने देशकी और विशेष कर उसकी भाषा बोलते हैं,  जिसकी गोद में पलते हैं । हम तार्जुब करते है कि हिन्दोस्तान का बच्चा अंग्रेजी क्यों नही बोलता । अथवा युरोप के लडके संस्कृत क्यों नही बोलते । क्या इसका यही कारण नहीं है कि बच्चे जो कुछ सुनते हैं वह बोलते है । अर्थात् बच्चों को बोली बुलवाने के लिये उनके कानके पास कुछ बोलना पडता है  । मतलब यह कि बगैर सिखाये कोई भी मनुष्य बोल नही सकता ।

बिना सिखाये हुए, सिखाने वालोंकी भाषा न सही, पर अपने आप ही कोई नई भाषा तो उसे जरूर बोलना चाहिये, क्योंकि बोलने का यन्त्र मुह और उसके अन्दर सब पुरजे तो है किन्तु अफसोस वह कोई नई भाषा बना भी नही सकता । यह बात हमको तब प्रमाणित होती है, जब हम किसी जन्मबधिरकी ओर ध्यान देते है । आपने सैकडों गूंगे मनुष्य देखे होंगे, उनको बहरा भी पाया गया होगा । किन्तु यह न देखा होगा कि उन्होंने कोई भाषा अपनी सारी उमर में भी बनाली हो । क्यों बहरा कोई भाषा बना नहीं सकता ? क्यों प्रत्येक जन्म बधिर गूंगाही होता है ? इसलिये कि उसको किसीकी भाषा सुनाई  नही पडती । यदि कहो कि बहरे के मुखतन्तु खराब हो जाते है इसलिये  वह नहीं बोल सकता तो इसका भी वही अर्थ हुआ कि यदि वह सुनता तो जरुर वही सुनी हुई भाषा बोलने की कोशिश करता, किन्तु उसने सुना नहीं, अर्थात्‌ शिक्षा नहीं मिली इसी लिये काम न पडने के कारण यन्त्र भी खराब होगया, पर " गूंगे बहरे स्कूलों मे उनसे यन्त्रके सहारे बोलवा भी दिया जाता है ""। यह भी एक प्रबल प्रमाण है कि मनुष्य बिना शिक्षा के कोई भाषा बना नहीं सकता ।

कान और मुख दुरूस्त होते हुए भी अर्थात् बिना बहरे और गूंगेपन के भी अगर किसी बच्चें को ममनुष्य की भाषा सुननेको नहीं मिली तो वह कोई भाषा बोल नहीं सकता और न आजीवन कोई भाषा बना सकता है ।

बहुधा बच्चे भेड़ियों की मान्दों मे पाये गये है । और जब कभी वे पाये गये है, चाहे उनकी आयु सोलह या बीस वर्षकी भी होगई हो, पर उनमें वही भेड़ियों के शब्द (गुर्राने) के अतिरिक्त शुद्ध अकारके उच्चारण करने की भी सामर्थ्य नहीं पाई गई । ये बाते मेंढक खाने की गप्पे नही हैं किन्तु ये वे घटनायें है जो युरोप और अशिया तथा हिन्दोस्तान में अनेक बार हो चुकी है और अंग्रेजी तथा हिन्दी ( सरस्वती आदि ) पत्रोने अनेक बार इनपर निबन्ध लिखे है । अभी कुछ  समयकी बात है इसी प्रकारका एक मनुष्य खेतों में भेड़ियों की मान्द के आसपास चारों पावों से चलता हुआ ( मनुष्यकी सुरत का ) देखा गया, लोग उसे पकड लाये और दो चार रात गांव में रखकर देखा, पर वह सिवाय मांस के न कुछ खाता था न बोलता था,  डरके मारे कापता था । यह हाल देखकर लोगों ने उसे आर्य समाज के अनाथालय बरेली में पहुंचा दिया । बहुत दिनतक वह वहा रहा और जीता रहा । अब नही कह सकते कि वहा है या नहीं । कहने का मतलब यह कि उसकेकान भी दुरुस्त थे और मुख-यन्त्र भी ठीक था, पर वह कोई नई भाषा बना नहीं सकता ।

प्रोफेसर मैक्समूलर कहते हैं,  कि मिश्र के बादशाह ' सीमीटीक्स ' ने दो सद्यत प्रसूत बालकों को गडरियेके सुपुर्द किया और ऐसा प्रबन्ध किया कि पशुओं के अतिरिक्त मनुष्यों की भाषा सुनने को न मिले, जब लड़के बड़े हुए तो देखा गया कि उनको ' कू ' ' का ' के अतिरिक्त कुछ भी बोलना नहीं आता था । इसी प्रकार ' द्वितीय फ्रेडरिक ' ' चतुर्थ जेम्स ' और अकबरशाह दिल्ली आदिने भी परीक्षार्थ बच्चों को मनुष्यकी भाषासे पृथक रखकर देखा, पर अन्त मे यही पाया कि मनुष्य बगैर सिखाये भाषा सीख नहीं सकता । ( देखो साइन्स आफ दी लाॅग्वेज पृष्ठ 481 ) पर -

भाषा शनैः शनैः ध्वन्यात्मक शब्दों और पशुओं की  बोलीसे उन्नति करके इस दशाको पहुंची है । किन्तु डार्विन के इस मन्तव्यका प्रबल खण्डन प्रोफेसर ' नायर ' ने उसी समय किया और अब मैक्समूलर भी इस विषय में डार्विनादिके प्रतिपक्षी है । वे कहते हैं कि ' मनुष्य की भाषा, ध्वनि अथवा पशुओं की बोली से नहीं बनीं ' । प्रोफेसर ' पार्ट ' भी बड़ी उत्तमतासे डार्विन के सिद्धांत का खण्डन करते हुए बतलाते है कि " भाषा के वास्तविक स्वरूप में कभी किसी ने परिवर्तन नहीं किया , केवल बाह्य स्वरूप में कुछ परिवर्तन होते रहे हैं । पर किसी भी पिछली जातिने एक धातुभी नया नहीं बनाया । हम एक प्रकारसे वही शब्द बोल रहे है, जो सर्गारम्भ में मनुष्य के मुह से निकले थे " ।

'शक' 'एडमस्मिथ' 'ड्यूगल्डस्टुआर्ट' आदिके कथनानुसार मनुष्य बहुत कालतक गूंगा रहा । संकेत और श्रृप्रक्षेपसे काम चलाता रहा । जब काम न चला तो भाषा बनाली और परस्पर संवाद करने से शब्दों के अर्थ नियत करलिये इसका उत्तर प्रो. मैक्समूलर ने इतना मुहतोड दिया है कि । आप फरमाते है कि " मैं नही समझता कि बिना भाषाके उनमें परस्पर संवाद किन प्रकार जारी रह सका । क्या अर्थ नियत कलने के पूर्व संवाद निरर्थक ही चला आता था ? " । इसके आगे आप कहते है कि ' मेरा मुख्य उद्देश यह सिद्ध करना है कि भाषा मनुष्य की बनाई हुई नहीं है । मै सहमत हूँ  कि  " शब्द अनादि कालसे बने बनाये है " बल्कि उसमें इतना और जोड़ देना चाहता हूँ कि ' शब्द अनादि कालसे बनेबनाये है और वे ईश्वर की और से है ' ( देखो सायंस आफ दी लाॅग्वेज )

भाषा ईश्वर प्रदत्त है, इस विषय में ऋषि कहते है कि -

सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पॅथक् ।
वेदशब्देब्य एवाऽऽवौ पृथ्वक्संस्थाश्च निर्ममे ।। 21 ।। मनु. 1/21

सृष्टिकी आदि में परमात्मा ने वेदो से सबके नाम कर्म और व्यवस्था अलग अलग निर्मित किया।

तपो वाचं रतिं चैव कामं च क्रोधमेव च ।
सृष्टिं ससर्ज चैवेमां स्त्रष्टुमिच्छन्निमाः प्रजाः ।।25।। मनु. 1/25


प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा करने वाले (परमात्मा) ने तप, वाणी, रति, काम और क्रोध को उत्पन्न किया । वेद स्वयं कहता है कि ' यथेमा वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ' जिस प्रकार मैने कल्याणकारी वाणी मनुष्यों को दी है । इत्यादि प्रमाण काफी है ।

अक्षरविज्ञान भाग ६  => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/11/blog-post.html
अक्षरविज्ञान भाग ८  => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/11/blog-post_13.html


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