Sunday 30 October 2016

अक्षरविज्ञान भाग ५

" आदि सृष्टि मे मनुष्य के उत्पन्न होनेपर शंका "

     विकासवाद वालों के दिलोपर यह शंका भी होती होगी कि अकस्मात् कैसै अनेक प्राणी और मनुष्यादि शरीरवाले सृष्टि की आदिमे अनायास अपने अपने रुप में निकल पडे होंगे ? हम कहते है घबराने की बात नही है . सावधान होकर सृष्टि को देखो, वह आपको जवाब दे देगी । देखो बरसात में  बीरबहूटी ( बरसाती किड़ा ), केंचुऐ , मेंढक आदि कैसै उसी रुप में पैदा हो पढते है जिसमे वे सैकड़ों वर्ष पूर्वसे हरसाल बरसात में पैदा होते थे । उनको  क्रमक्रम विकासकी जरुरत क्यों नहीं होती मेंढक तो ऐसा विचित्र जन्तु है और अपने जन्मका ऐसा सुन्दर नाटक दिखलाता है कि लोग दंग रह जाते है । किसी मेंढक का चूर्ण बनाकर और बारीक कपडे में छानकर शीशी में बन्द कर लीजिये बरसात में  उस चूर्णको पानी बरसते सय जमीनपर डाल दीजीये तुरन्त ही छोटे छोटे मेंढक कूदने लगेंगे । इनको क्रमक्रम उन्नतिकी क्यों  दरकार नहीं होती ? आज जब सृष्टि में इतने दिन होजानेपर भी इतना बल मौजूद है कि वह हरसाल बरसात मे एक एक फुट और डेढ़ डेढ़ फुटके कीडे केंचुऐ बिना माता पिताके पैदा कर सकती है तो क्या अरबों वर्ष पूर्व जब सृष्टि में  पूर्ण बल मौजूद था, इस पाँच फीट लम्बे कीडे ( मनुष्य ) के उत्पन्न करने में असमर्थ कही जा सकती है ? कभी नहीं । अतः यह निश्चय है निर्विवाद है निसंशय है कि आदिसृष्टि में मनुष्य इसी प्रकारका हुआ जिस प्रकार का अब है । और होना भी तो चाहिये था ।
        क्योंकि पूर्व सृष्टि में जिनको मनुष्य शरीरके सुख दुःख भोगने को बाकी रहगये थे उन्हे मनुष्य बनाना ही तो न्याय था क्योंकि यदि कोई मनुष्य दिन समाप्त हो जानेपर रात्रि आजाने के कारण सोजाय तो क्या दूसरे दिन प्रातःकाल उसे मनुष्य ही रुपमें न जागना चाहिये ? अवश्य मनुष्य ही रुपमें जागना चाहिये । बस ठीक इसी भाँति आदि सृष्टि में भी कर्मानुसार अमैथुनी सृष्टी द्वारा प्रथम मनुष्यों की सृष्टि हुई ।

अब कुछ विद्वानों युरोपीय और भारतीय के प्रमाण देते है :-

(1) प्रोफेसर मैक्समुलर लिखते हैं कि  " हमें इस बात के चिन्तन करने का अधिकार है कि करोड़ों मनुष्यों के होजाने के पहिले आदिमें थोडेही मनुष्य थे । आजकल हमें  बताया जाता है कि यह कभी नहीं  होसकता कि पहिले पहिले मनुष्य उत्पन्न हुआ हो । एक समय था जब कि थोडेही आदिपुरुष और थोडीही आदि स्त्रियाँ उत्पन्न हुई थी " । ( देखो चिप्स फाॅर्म ए जर्मन वार्कशाॅप जिल्द 1 पृष्ठ 237 क्लासी फिकेशन ऑफ मैन काईंड )

(2) न्यायमूर्ति मद्रास हायकोर्टा के भूतपूर्व  जज टी.एल. स्ट्रैअ महोदयने तो अपनी पुस्तक में स्वीकार किया है कि " आदिसृष्टि अमैथुनी होती है और इस अमैथुनी सृष्टि में उत्तम और सुडौल शरीर बनते है "।

संसारकी प्रचलित सभ्यताओं से साबित होता है कि मनुष्य आरम्भ सृष्टि से ही इस आकार प्रकारका है -

मानव उत्पत्ती के बाद से ।
आदिसृष्टी से संकल्पसंवत् = १,९७,२९,४०,११७
वैवस्त मनु से आर्यसंवत्   = १२,०५,३३,११७
चीन के प्रथम राजा से चीनी संवत् = ९,६०,०२,५१७
खता के प्रथम पुरुष से खताई संवत् = ८,८८,४०,३८८
पृथिवी उत्पत्ति का चाल्डियन संवत् =२,१५,००,०८७
ज्योतिष -विषयक् चाल्डियन  संवत्= ४,७०,०८७
ईरान के प्रथम राजा से ईरानियन संवत्= १,८९,९९५
आर्यों  के फिनीशिया जाने के समय से फिनीशियन संवत्=३०,०८७
इजिप्त जाने के समय से इजिप्शियन  संवत् = २८,६६९
किसी विशेष घटना से इबरानियन संवत्=६,०२९
कलियुग के आरंभ  से कलियुगी संवत्=५,११७
युधियुधिष्के प्रथम राज्यरोहण से युधिष्ठिर सवंत्= ४,१७२
मूसा के धर्मप्रचार से मूसाई संवत् =३,५८३
ईसा के जन्म दिन से ईसाई संवत्= २,०१६

" अब प्राचीन ऋषियों का सिद्धांत "

' तत्र शरीरं द्विविधं योनिजमयोनिजं च ' ।। 5 ।। 4/2/5
ऋषि  कणाद = वैशेषिक दर्शन शास्त्र  ।

अर्थात् दो प्रकारके शरीर होते है । योनिज और अयोनिज, जिनको हम मैथुनी और अमैथुनी सृष्टि कहते है । उपरोक्त सूत्रकी व्याख्या गौतम जीने प्रशस्तपाद में  इस प्रकार की है :-

" तत्रयोनिजमनपेक्षित शुक्रशोणित देवपीणां शरीर धर्मविशेषसंहितेभ्योऽणुम्यो जायते "

इन वचनों में अमैथुनी सृष्टि  का यह निर्वचन किया है कि अयोनिज शरीर रजवीर्य के बिनाही होते है, यही बात पुरुषसुक्त के इस वचन मे स्पष्ट होती है कि -

' तेन॑ दे॒वा अय॑जन्त । सा॒ध्या ऋष॑यश्च॒ ये '


अर्थात् आदि में देव साध्य ओर ऋषि परमात्मासे ही हुए । यहातक हमने अपनी क्षुद्र बुद्धि  के परिणामसे सृष्टि नियमो और विज्ञान के गूढ़ रहस्यों, प्राणी, धर्मशास्त्र और वनस्पति शास्त्र के धर्मों के साथ साथ युरोपीय और भारतीय मान्य पण्डितों के अनुमोदन समर्थन तथा संसारके प्रचलित सभ्यताओं के साथ सावित किया कि आदिसृष्टि में  मनुष्य ही पैदा हुआ था । मनुष्य  का पिता मनुष्य ही था । साथही साथ यह भी दिखाया कि विकासवाद या डार्विन थ्योरी मतानुसार सृष्टि शृंखला सिद्ध नहीं  होती । आशा है कि विचारशील पुरुष इस बात को तनिक समय न लगाते ही ग्रहण कर आगः अनुसंधान करनेकी सुविधा प्राप्त करेंगे ।

अक्षरविज्ञान भाग ४ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_29.html

अक्षरविज्ञान भाग ६ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/11/blog-post.html

Saturday 29 October 2016

अक्षरविज्ञान भाग ४

मनुष्य बन्दर आदि पशु विभाग का प्राणी नहीं  है ।

      बन्दर और गोरेला (वन मनुष्य ) की बनावट में उतना अन्तर नहीं  है जितना गोरेला और मनुष्य में अन्तर है, और यह अन्तर ऐसा है, जिसको विज्ञान कभी भी एक न होने देगा । सुनो !

      संसार में  मनुष्य  को छोड़कर  जितने  प्राणी है किसी के भी बालों में रंग और बनावटका वैसा परिवर्तन नहीं  पाया जाता जैसा मनुष्यों के  बालों में । जो गाय सफेद होती है, आजीवन सफेद ही रहती है । जो घोडा लाल होता है, आजीवन लाल रहता है । जो बन्दर भूरा होता है, भूराही रहता है । और जो वनमनुष्य जिस रंगका होता है, आजीवन उसी रंग का रहता है । पर मनुष्य के  बालों  का रंग चारबार पलटता है । पैदा होनेपर भूरे, फिर काले, तब सफेद और अन्तमे पिंगल हो जाते है । मनुष्य  का बालों  के साथ क्या सम्बन्ध है ? इस बात का उत्तर देना भारतवर्ष के अतिरिक्त  और किसी देशके पण्डितका काम है । वेद मे लिखा है कि :-

" बृहस्पतिः प्रथमः सूर्यायाः शीर्षे केशाँ अकल्पयत् । अथर्व 14/1/55 "

         अर्थात् ' बुद्धि तत्त्वने पहिले ही सूर्य के द्वारा शिरमे बालों को  पैदा किया ' मनुष्य  का शिर आकाशकी ओर है, आकाश जिसको द्यौ, अग्नि, बृहस्पति  आदि कहते है बुद्धि तत्त्वको प्रकाशक और सूर्यकिरणों के द्वारा बुद्धि तत्त्वको मनुष्य के शिर में पहुचाना है । अब निर्णय होगया है कि ईथर (आकाश) ही सूर्यको भी प्रकाश देता है और ईथरही विद्युत को भी पैदा करता है । विद्युत से और केशों  से  कितना सम्बन्ध है वह कहने की जरुरत नहीं  है । केशोंपर विद्युत का असर बहुत ही शीघ्र पडता है । केशों में  एक डंडी रगडकर कागजके टुकड़े के पास लेजावो कागज खींच कर डंडी में  आजायेगा । जबसे बच्चा ज्ञान प्राप्त करने लगता है तभीसे बाल श्याम ( काले ) रंगके होजाते है । श्याम रंगपर सूर्यका प्रकाश कितनी जल्दी पडता है यह भी कहने की जरुरत नही हैं । इस विवरण से समझ सकते हो कि जिनके बालों  का रंग नहीं  बदलता ऐसे बन्दर और वनमानस कभी मनुष्य  के बुजुर्ग हो सकते है ? कभी नही ।

       जिस प्रकार बालों की  विचित्रता आपने पढ़ी उसी प्रकारकी विचित्रता मनुष्य में  एक और है । वह यह कि मनुष्य पानी में बिना सिखलाये हुए नहीं  तैर सकता । एक चींटीसे लेकर पशु, पक्षी, कीट, पतंग यहाँ तक  कि बन्दर भगवान भी पानी में डालते ही तुरन्त तैरने लगते हैंएक क्षणभर भी यह नाविकज्ञान किन्तु महाज्ञान सीखपे के लिये उनको किसीका सहायताकी आवश्यकता नहीं होती । किन्तु मनुष्य  महाराज को तैरना बिना सिखाये नहीं  आता, यही कारण है कि हरसाल अनेक मनुष्य जल में डुबकर मर जाते हैं । तैरना ही क्या, मनुष्य  को बिना सिखलाये कुछ भी नहीं  आता । पर अन्य प्राणियों को उनके निर्वाह का सभी ज्ञान बिना किसी गुरु  के  वंश परम्परानुसार होता चला आता है । किन्तु हाँ, मनुष्य  स्वप्न में उडता और तैरता अवश्य है । स्थलके प्राणी जागते हुये तैर लेते हैं और मनुष्य स्वप्न में  उड लेता है, यद्यपि इस लोक में इन दोनों  विद्याओं की शिक्षा दोनो मे से किसी को नहीं  दी गई । क्या कृपा कर युरोप के विद्वान इसका कारण कह सकेंगे ? भी नहीं  । युरोप के क्या सारे संसार के लोग इन बातों का उत्तर नहीं  दे सकते । पर भारत ! वह तो ऐसै प्रश्नों के उत्तर देने के लिये ही राजपाट, व्यापार, कलाकौशल छोड़कर सन्यासी बन बैठा है ।

       लीजिए उत्तर सुनिये । यह कौतुक पुनर्जन्म का ज्वलन्त दृष्टान्त प्रमाण और प्रत्यक्ष अनुभव है । अनेकों  जन्म जन्मान्तरों मे प्राणियों ने नाना प्रकारकी योनियों में प्रवेश किया है, समय पडने पर वही संस्कार जाग्रत हो जाते है और प्राणी जल में पडते ही, मनुष्य सोते सय संकट में पडते ही तैरने और उडने लगता है । किन्तु मनुष्य अपनी इस देह के साथ बिना सिखाये कुछ भी नहीं कर सकता ।

         अब इस घटना को विकासवाद के साथ मिलाकर हम प्रश्न करते है कि " मनुष्य के  पिता बन्दर देव तो तैरना जानते है, पर यह विकास को प्राप्त  हुआ उनका पुत्र ' मनुष्य ' जो अधिक उन्नत समझा जाता है तैरना नही जानता । इसका जवाब क्या है " , ? इसी प्रकार वृक्षों की खुराक प्राणनाशक वायु और प्राणियों की खुराक प्राणप्रद वायु है, वृक्ष प्राणप्रद वायु देते है और मनुष्य प्राणनाशक वायु देते है । वनस्पति और प्राणियों से भी कोई जीवन सम्बन्धी अथवा सामाजिक वा शृंखला  सम्बन्धी मेल नहीं  मिलता । तब विकासवादी क्रम क्रम उन्नति सिवा बच्चों के खेलके और क्या कही जा सकती है ?

        इन तीन दृष्टान्तो से दिखला दिया गया कि मनुष्य पशुओं  से और प्राणि वर्ग वनस्पतियों से कुछ भी सम्बन्ध  नहीं  रखते ह आगे चलकर दिखलाते कि युरोप के पण्डितों को अँधेरी रात में  क्यों ठोकर खानी पड़ी है ।


" युरोपीय विद्वानों को धोखे में डालने वाली बाते "

    जिस प्रकार मनुष्य और वनमनुष्य को देखकर दोनों के एक होने का सन्देह होने लगता है, उसी प्रकार चमगादड़  ( BAT ) को देखकर पशुपक्षियों की शृंखला में विचार होने लगता है और मछली तथा पक्षी, सूसर और भैंस को देखकर भी सन्देह होने लगता है । इसी प्रकार नागबेल और सर्प के मिलान तथा अन्य सहस्त्रों वनस्पति और कीटों को देखकर निर्णय ही नहीं होता कि इसे कीट कहें या वनस्पति ? ऐसी दशा में एक बात यह ध्यान आये बिना नहीं रह सकता कि क्या यह एक रुपता की ही बहुरुपता है और वास्तव में एक दूसरें उतना ही सम्बन्ध है, जितना कि बापका बेटे से । परन्तु जरा गहरी नजर से देखने पर और पुनर्जन्म के सिद्धांत पर विचार करने से सारी उलझन सुलझ जाती है और मामला बातकी बात में साफ हो जाता है ।

(1) नागवेल वह वनस्पति है, जो सुवर्ण के तारों की भाँति वृक्षों में लिपटी रहती है । उसकी जड़को भूमिकी दरवार नहीं होती । वह दूसरे वृक्ष के ही उपर सर्पकी भाँति रेंगती रहती है । उसी को खाकर खुद बढ़ती और सन्तान बडा़ती है, टूटनेपर टूटा हुआ टुकडा अलग एक लता बनकर अपना विस्तार करने लगता है । यद्यपि यह वनस्पति सर्पादि जन्तुओं से बहुत कुछ मिलती है इसे नागवेल कहते भी हैं  पर वनस्पती  के गुण अधिक से अधिक है  इसलिये इसे वनस्पति  ही कहते है ।

(2) बहुतसे कीटाणु और वनस्पति पुद्रल एकही प्रकारके होते है । किसी प्रकार भी निश्चय नहीं होता कि इन्हें वनस्पति श्रेणी में रक्खे या कृमि कीट जन्तुओं की श्रेणी में ।

(3) वन मनुष्य और बन्दर मनुष्य की भाँति छाती तानकर खडे़ नहीं हो सकते, वै जरा झुके हुए होते है ।

      आप सारी चेतनसृष्टिका एक सृष्टि नियम के द्वारा विभाग करें  तो उनकी शारीरिक रचनाके माफिक तीन महाभाग होंगे । पहिले खडे शरीरवाले अर्थात् आकाशकी ओर सिर वाले ' मनुष्य ' दूसरे आडे शरीरवाले, अर्थात उत्तर दक्षिणकी ओर सिरवाले ' पशु ' जिनमे जलस्थल और वायु तथा फन वाले भी है । तीसरे नीचेकी ओर सिरवाले, वृक्ष । यद्यपि यह तीनों प्रकार के शरीरों  का वर्णन पूर्णरीतिसे हम यहाँ नहीं करना चाहते कि क्यों ये तीन प्रकारकी बनावटें होती है ? पर इतना कहे देते हैं  कि ज्ञानका दुरुपयोग करने में सिर द्यौ ( आकाश ) की ओर में हट जाता है और पशु होजाना पडता है तथा ज्ञान और कर्म दोनों  के दुरुपयोग से सिर और कर्मेंन्द्रिय ( हाथ पैर ) भी छीन ली जाती हैं  और वृक्ष बनाकर उलटा ( सिर नीचे ) करके जमीन में  गाड दिया जाता है । बस इन्ही तीनों श्रेणियों में जाने के लिये  जो दरवाजे रक्खे गये है , अर्थात ऊपर कही हुई बन्दर चमगादड़ आदि जो सन्धि-योगियाँ है वही विकासवाद के सिद्धांन्तियों को हैरान कर रही है अतएव आओ, हम इसका कारण समझा दें । आप गौर करके देखे तो सन्धियोनियाँ भी दो प्रकारकी पायेंगे । एक उत्तम, दूसरी निकृष्ट । जैसै बन्दर और वन मनुष्य, नागवेल और मानेर तथा ' यमोवा ' आदि मनुष्य योनी से जब प्राणी नीच योनी में  जाता  है तो मानो  उस समय उसमें अधिक पशुता होती है इसलिये सन्धियोनि भी अधिक पशुतासे भरी हुई ' बन्दर ' होनी चाहिए ।

       पर पशुयोनिसे जब मनुष्य योनि मे आता है । तो उसमे अधिक सात्विकता  होती है । इसलिये वैसै मौके के लिये वनमानव गौरेला आदि है । इसी भाँती कोई पशु जब वृक्ष योनि में  जाता है तो वह नावेल आदिके द्वारा जाता है, क्योंकि  नागवेल में  वनस्पति पना अधिक  है। पर यदि कोई जीव वृक्ष योनि से पशु योनि मे आनेवाला है तो वह मानेर यमोवा आदिके द्वारा आयेगा जिनमें कीटत्व अर्थात् प्राणित्व अधिक है । इसी प्रकारसे प्रायः सब जातियों सब प्राणियों में अच्छे और बुरे दो भेद दिखाई पडते है, और सुचित कर रहे है कि एक नीचे जा रहा है, दुसरा ऊँचा आ रहा है । पर कभी भी ऐसा नहीं  हो सकता कि कुछ बन्दरों  की औलाद स्वयं मनुष्य बन जाये और करोड़ों बन्दर अबतक बन्दरही बने रहे । विज्ञान बता रहा है कि मैटर अर्थात् प्रकृति मे एकही साथ मोशन अर्थात गति दी गई  है और ठीक भी है यदि मोशन देने वाली शक्ति ' फोर्स ' सर्वत्र है, व्यापक है तो उसकी की हुई गति भी सर्वत्र ही हुई होगी और उस गति में  बननेवाले कार्य भी सब एक साथही बनने शुरू हुए होंगे । तब कोई कारण प्रतीत नहीं  होता कि थोडेसे बन्दर आदमी बनगये और बाकी सब बन्दर ही पडे है । क्या उनको अबतक कुछ भी आकार प्रकार में  ह्रास अथवा विकास करनेकी जरुरत नहीं  हुई । हमें अफसोस है कि वैज्ञानिकों का नाम बदनाम करनेवाले वैज्ञानिकों को ऐसी ऐसी मोटी बातें  भी नही सूझी


      हमारे इस योनियों तथा सन्धियोनियों और पुर्वजन्मके बारिक विवरण में  यह बात जरूर प्रकाशित होगई होगी कि मनुष्य किसी दूसरी योनिका विकार नही है । वह स्वयं मनुष्य का ही पुत्र है । पर यहाँ  शंका जरूर होगी कि " मनुष्य शरीर से पशुयोनि में जाने के लिये उसके लिंग शरीरको बन्दरकी योनिमें जाना पडता है । इधर उपर कहा गया है कि लिंग शरीरों  को वही खींच सकता है, जिसका जिससे समान प्रकारका सम्बन्ध है । यदि मनुष्यके लिंग शरीरको बन्धर खींच सकता है तो निश्चयही बन्दरका मनुष्यके साथ मिश्र योनिज जातिका भी हिरन बकरी का सम्बन्ध होगा " किन्तु इसका उत्तर हमने पहिले ही पिछले लेखों  मे दे दिया है, फिर से उसे यहा रखते है । मनुष्य  के जीते ही जी उसके कर्मानुसार बाह्य आकृति से लेकर लिंग शरीर पर्यन्त परिवर्तन हो जाता है । जब मनुष्य पशु योनिमें जानेवाले कर्म करता है तो जीते ही जी उसका लिंग शरीर बन्दरकी शकलका हो जाता है जिसको बन्दर आसानी से खींच लेता हैं । बन्दर, बन्दर के ही रुपको खींचता है मनुष्य के रुपको नही । तात्पर्य यह कि प्राणियों की सन्धियोनियों में जो एक रुपता है वह मरने के बाद पुनर्जन्म मार्ग सरल करने के लिये है नाकि इसी जन्म मे मिश्रयोनिज वंश स्थापन करने के लिये । अतः आशा है कि सन्धियोनियों  को देखकर कोई विद्वान  भ्रम में  न पडेंगे ।

अक्षरविज्ञान भाग ३ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_28.html
अक्षरविज्ञान भाग ५ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_30.html

Friday 28 October 2016

अक्षरविज्ञान भाग ३

" कोई प्राणी अपने आकार को पलट नही सकता "

       विकासवादी कहता है कि नहीं नहीं तुम विकासवाद को नहीं  समझते । मनुष्य की शृंखला सम्बन्ध समस्त प्राणी और वनस्पति से नही है । किन्तु खास खास प्राणियोंका ही मनुष्य  विकास है । सुनो :-

       विकास का सिद्धांत है कि " जो प्राणी अपनी आप रक्षा नही कर सकता उसे सृष्टि जीवित नहीं  रखती अतः संसारके सभी प्राणी भोजनोपार्जन धुनमें  रात दिन व्यग्र रहते हैं । नाना प्रकार की चेष्टा करते हैं । चेष्टा  करते समय शरीर के जिस जिस भागपर अधिक वजन पड़ता है वही वही भाग बहुत समय के बाद विलक्षण प्रकार का बन जाता है। उसकी सन्तानकी सन्तान में  दीर्घकालके बाद एक विशेष अंग पैदा हो जाता है और एक नये आकार प्रकारकी जाति बन जाता है । इस थ्योरी  और सृष्टि  नियम के आधारपर विद्वानों  ने माना है कि :-

        आदि सृष्टि में  पानीपर एक ऐसा जन्तु पैदा हुआ जिसे न तो प्राणी कह सकें  न वनस्पति । उसने अपने पोषण करने के लिये प्रयत्न किया । उसकी वंश वृद्धि  हुई । वंशजों ने भी दैविक घटनाओं के अनुसार अपने पोषणार्थ मौका माहोलसे प्रयत्न करना शुरू किया । बहुत दिनके बाद उनमें से कुछ मछली बन गये । पानी में  बहुधा लकड़ी  पड़ी रहती है । जो मछलियाँ  लकड़ी  में  चढने का अभ्यास करती रहीं  वे वृक्ष में  चढ़ने वाली गिलहरी आदि बन गई । उधर जो किनारोपर स्थल में  अभ्यास करती रहीं  वे मेंढक आदि बनकर सुवर आदि बन गई  और इसी तरह क्रम  क्रम घोड़ा  बन्दर गौरेला ( वन मनुष्य ) होते हुए मनुष्य  बन गया " । ( देखो पिक्चरबुक ऑफ इवोल्युशन पृष्ट 154,155)

पाठक ! ' जड पानी से आरम्भ में  चेतन कीडा कैसे बन गया ' यह जटिल प्रश्न न करके उपरोक्त  विकासवाद का उत्तर यह है कि ' जो प्राणी जिस अंग वा जिस इन्द्रिय से अधिक काम लेता है उसके उस अंग वा उस इन्द्रिय के पूर्व  गुणों  में  कुछ वृद्धि  वा ह्रास हो जाता है यह सत्य है पर उस अंग वा इन्द्रिय का आकार प्रकार उलटा-सीधा टेढा-मेंढा नही हो जाता ' कोई नया अंग वा इन्द्रिय फूट नहीं  निकलती और न कोई अंगलोप भी हो सकता है । हम अपने इस आरोपकी पुष्टि में निम्रोक्त, तीन वैज्ञानिक युक्तियां देते है ।

( 1 ) किसी भी प्राणी की इच्छा से उसके शरीर में  हड्डी पैदा नहीं  हो सकती । हड्डी की शाखा नहीं  फूट सकती । दो पैरकी जगह चार पैर अथवा छे पैर नहीं  हो सकते । जिनके आँख नहीं  है उनके आँख पैदा नहीं  हो सकती और न हाथ पैर आँख वालों  के ये अंग गायब ही हो सकते है । क्योंकि  हम देखते है कि हड्डी का सम्बन्ध प्राणी के ज्ञान तन्तुओं से नही है । दात में  सुई चुभाइये अथवा टूटी हुई ( शरीरको छेदकर बाहर निकली हुई ) हड्डीको चाकूसे काटिये, आपको बिलकुल तकलीफ न होगी । जब दात और हड्डी का  सम्बन्ध आपके मन अथवा बुद्धि के साथ है ही नहीं  तो दात अथवा अन्य हड्डीपर आपकी इच्छा शक्ति का कैसै असर होगा ? जब आप अपने बालोंको अपनी इच्छा  से हिला नहीं  सकते उन्हें खडा नहीं  कर सकते तो वे आपकी इच्छासे कैसे घट बढ सकेंगे ? इसी तरह प्रयत्न से भी कोई चीज फूट कर बाहर नहीं  निकल सकती क्योंकि प्रयत्न  तो इच्छा  के बाद होता है । अतः विकास की थ्योरी, जो इच्छा  और प्रयत्न से अंगो अर्थात्  हड्डीयों की उत्पत्ति मानती है, बिलकुल असत्य है ।

( 2 ) भोजन प्राप्त करने में  आँख, नाक, जिह्वा और त्वचाकी आवश्यकता  हो सकती है पर भोजन प्राप्तिका सम्बन्ध शब्दके साथ कुछ भी नहीं  है, तब प्राणियों  में  कर्ण इन्द्रिय की उत्पत्ति  क्यों  और कैसै हुई ?


( 3 ) यदि जरुरत और इच्छा होनेपर उन पशुओं  के शरीरों  पर बाल उग और बढ सकते है, जो बर्फानी स्थानों में रहते हैं  तो हजारों  सालसे बर्फानी  स्थानों में  कष्ट पानेवाले ग्रीनलैण्ड आदि निवासी मनुष्यों के शरीरों  पर बाल क्यों  न उग निकले? हम देखते है कि जिनको परमात्मा ने ऐसे बाल दिये हैंउनके शरीरपर सरदी पडते ही बाल निकल आते हैं  और गर्मी के  मौसम  मेंनिकले हुए बाल कम हो जाते है ( देखो चिल्ड्रेन  मेगजीन फरवरी सन् 1914 ) पशुओंपक्षियों  की इच्छा  से तो छे महिने में बाल बढ जायें पर ग्रीनलैण्ड  के  मनुष्यों  के शरीरों  पर हजारों  वर्षों  में  भी बाल न उगे यह कैसा विकासवाद का अन्वेर है ? इच्छा  शक्ति  तथा प्रयत्न से जब शरीर पर बाल भी नहीं  उग सकते, उगे हुए बढ भी नहीं  सकते तो कान जैसी बेजरुरी इन्द्रिय और हड्डी जैसी बुद्धि  से भी सम्बन्ध न रखनेवाली वस्तु आपसे आप कैसे बन सकती है ? अतएव प्राणी आपही आप अपने आकार प्रकार में  फेरफार नहीं  कर सकति ।

क्या मिश्र योनिज जातिसे वंश चल सकता है?

       यदि यह कहा जाय कि दो श्रेणियों के  मिश्रणसे तिसरी विलक्षण जाति उत्पन्न हो जाती है अतः सम्भव हैंदो श्रेणियों  ने मिल मिल कर जगत् की इतनी जातियाँ  करदी हों ? इसका उत्तर  ' सृष्टि  ने आपसे आप दे दिया है । सृष्टि  ने जो उत्तर  दिया है रहस्यपूर्ण  है । माली एक पेडसे कलम लगाकर और दूसरे में  लगाकर दोनोसे विलक्षण फल तैयार कर लेता है पर विलक्षण फल दूसरा वृक्षअथवा दूसरे फल पैदा नहीं  कर सकता । यह चरित्र हम रोज बगीचों  में  आम और बेर आदिके वक्षों में  देखा करते है । इसी प्रकार गधे और घोडीसे खच्चर नामका एक विलक्षण पशु पैदा हो जाता है पर वह भी औलाद पैदा नहीं  कर सकता ! ये उदाहरण है, जो प्रबलतासे ' मिश्र योनिज जाति ' का खण्डन करते है । मिश्र योनिज जातिका ही खण्डन नहीं  करते किन्तु एक सच्चा और वैज्ञानिक तर्क देते है :-

        “यदि कोई भी जाति जरा भी अपनी वंश परम्पराके प्रतिकूल अपने शरीर में कोई भी नई बनावट उत्पन्न करेगी तो उसका वंश न चलेगा "। पर कुछ योनियाँ ऐसी भी पाई गयी है, जिनके मिश्रणसे वंशपरंपरा चलती है। पर वे जातियाँ जो हमारी दृष्टि में दो समझ पडती हैं, निस्सन्देह कुदरत की दृष्टि में एकही है, अन्यथा उन दोनों के मिश्रणसे वंश कदापि न चलता ।

हमारी दृष्टि में  - हमारी बाँधी हुई शृंखला में  हमारी नियत कियी हुई व्यवस्था में  सरासर भूल है । हम बहुत करके बाहरी आकार प्रकारकी समता देखकर ही लिंग बनाते है पर वह सृष्टि नियम के अनुसार नहीं  होती ' क्या घोडे और गधेकी समता चुनने में हमने अपनी समझ में  कोई गलती की है ? क्या गधा बिलकुल ही घोडेकी शकलका नहीं  है? पर सृष्टि  कहती है, न गधे और घोडे से कुछ भी सम्बन्ध  नही है । '

       हम काम पडनेपर बकरी और मृगको बिलकुल भिन्न भिन्न जाति कहदें तो ताज्जुब नहींपर सृष्टि  दोनों  को एक समझती है । सुना गया है कि इन दोनों  के मिश्रणसे वंश परंपरे चलती है  । हम बाज समय बिलकुल एकही जातिके प्रान्त विभेदी शरीरों के  वैषम्यको देखकर यह कह उठते है कि यह बिलकुल कोई दुसरी जाति है । पर सृष्टि साबित करती है कि नही, यह दूसरी जाति नहीं  किन्तु एक ही है । टेराडेल्फिगो के मनुष्यों  को देखकर डार्विन जैसा प्राणिशास्त्री  कह उठा था कि ' उनको देखकर इस बातपर कठिनतासे विश्वास किया जा सक्ता है कि वे भी हम लोगों  की तरह मनुष्य  है ', ( ऐज्युकेशन किताब )
       किन्तु  वही डार्विन बन्दर और गौरिला को देखकर चिल्ला उठाया कि " मनुष्य निसंदेह इनका समीपी और इन्हीं  का उन्नत परिणाम है"। लेकिन सृष्टि  ने उसके अनुमान को उसी तरह काट दिया जिस तरह घोडे और गधे के साम्य तथा बकरी और हिरणके वैषम्यवाले अनुमान को काट दिया था । मतलब यह कि जिन जातियों  से मिश्र-योनिज वंश चल सकता है वे भिन्न जातियाँ  नहीं हैवे केवल टेराडेल्फिगो के  मनुष्यों की  भाँति  रुप बदले हुए एक ही जाति है और जिन जातियों  से मिश्र योनिज वंश नही चल सक्ता वे निस्सन्देह  बिलकुल भिन्न-भिन्न जातियाँ  है । मनुष्य के संयोग से गौरिला बन्दर आदि से लेकर घोडे गधेतक किसीमे भी गर्भ धारण नहीं  हो सकता अतः मनुष्य  उस शृंखला  का नही है । किन्तु हिरण और बकरी अथवा टेराडेल्फिगो  और मनुष्य  यद्यपि  देखने आकार प्रकार में  भिन्न  है पर उनमे वंश चलता है, इसलिये वे एक हैं । प्राचीन ऋषियों  ने इसपर बहुत कुछ विचार करने पर निश्चय  किया था कि :-

" समानप्रसवात्मिका जाति: " (न्याय अध्याय 2 आह्निक 2 श्लोक 68)

      अर्थात् जाति वही है, जिसमें  समान प्रसव हो-जिनके पारस्पारिक योगसे वंश चले । वे भिन्न रुप होनेपर भी एक ही जाति है । किन्तु आमों  की कलमों से उत्पन्न हुए फलों  और घोडे गधेसे उत्पन्न हुए खच्चरसे वंश नहीं  चलता इससे वे एक जाति नहीं  कहे जा सकते 

       कलमी आममें वृक्ष और फल क्यों  नहीं  लगते ? खच्चर के औलाद क्यों  नहीं  पैदा होती ? इसका उत्तर भारतवर्ष के अतिरिक्त संसार में  कोई भी देश ठीक ठीक नही दे सकता । क्योकर दे सकेगा इस पहेलीपर अन्दर तो कर्म, कर्मफल और उनका भोग तथा पुनर्जन्म  का गूढ रहस्य भरा हुआ है ।

पुनर्जन्म की यह प्रक्रिया है कि मनुष्य के कर्मों के साथ साथ उसके बाह्य शरीर और अन्तर शरीरों पर विलक्षण परिवर्तन होता है ।

इसे प्राय सभी लोग जानते है कि चोर और डाकुओं  की शकले भयानक हो जाती है, अन्तःकरण समेत आत्मा कर्मों  के कारण विलक्षण बन जाता है और मरने के बाद ऐसी योनि में  आकर स्थित होता है  । जैसै कर्म होते है । अब यदि यहाँ  पृथ्वीपर आप कोई कृत्रिम, सृष्टि  अथवा नियम के प्रतिकूल  नई जाति बना डाले तो उसमे आने के लिये बीज कहाँ से आयेगा ? क्योंकि बीज तो वहाँ  वही है, जो यहाँ  से गया है बीजे क्या कोई दूसरी चीज है ? वह तो वही मृतक पूर्वजों  का लिंग शरीर है । यदि ऐसा न होता तो खच्चर के वीर्यसे जीव क्यों न उत्पन्न होते, कलमी आम में  आमके बीज क्यों  न होते ? पर हों कहाँ से ! खच्चर ने गधे के वीर्य से निकलकर घोडीके गर्भ में  अपना रुप दोनों  से भिन्न एक नये प्रकारका बनाया था यही कारण हुआ कि उसके वीर्य में  जीव आकर्षित न हुए । विजातीय किस सम्बन्ध  से आकर्षित  करे ? यही कारण है कि कलम किये हुए वृक्षों  के फल भी अन्य फल नहीं  देते है । इस उदाहरण से विकासवाद के निम्नोक्त दोनों  सिद्धांत  कि :-

(1) आपही आप धीरे धीरे माता, पिताके अतिरिक्त भी कुछ गुण एकत्रित करते करते कुछ एक नये रुपकी नई जाति बन जाती है अथवा

(2) पृथक पृथक दो श्रेणियों के मिश्रण से मिश्र योनिज जाति बन जाती है । गिरगये । मिश्र योनिज जातिका सिद्धांत तो प्रत्यक्षही खण्डित होगया किन्तु परोक्षरीतिसे यदि सूक्ष्मतया देखो तो विकासवाद का क्रमक्रम उन्नतिसे वंश विलक्षण हो जाता है यह वाद भी उडगया, यथा -

प्रश्न:- खच्चर के औलाद क्यों नहीं होती ?
उत्तर:- मिश्र योनिज जाति होने से ।
प्रश्न:- मिश्र योनिज जाति होने से औलाद क्यो नही होती?
उत्तर:- इसलिये कि उसने अपनी वंश परम्परा अर्थात् बाप दादा के प्रतिकूल अपने आकार प्रकार में एक विलक्षण उन्नति की ।
प्रश्न:- मिश्र योनिज जातियों में भी तो वंश परम्परा चलती है ।
उत्तर:- वे जातियाँ दो नहीं किन्त एकही है ।
 प्रश्न:- उनके आकार प्रकार तो भिन्न भिन्न है, और उनसे बच्चा भी पैदा होता है?
उत्तर:- उनके आकार प्रकार हमारी दृष्टि में उसी प्रकार भिन्न है जिस प्रकार टेराडेल्फिगो के मनुष्यकिन्तु सृष्टि की  दृष्टि में  वे समान प्रसवा एकही जाति के दो भेद हैं ।

जब यह सिद्ध  होगया कि अपनी, वंश परम्पराके प्रतिकूल जरा भी आकार प्रकार में  परिवर्तन होने से वंश नही चलता, तब विकासवाद में क्रमक्रम उन्नतिवाले धोखे के विश्वास में  कुछ भी दम बाकी न रहा ।

यहां  तक यह दिखला दिया गया कि " गणितकी रीतिसे क्रमक्रम उन्नति सृष्टि  की आदिसे आजतक इतने दिनों  मे नही हो सकती । कोई भी प्राणी अपनी हड्डियों  मे काबू न रखपाया कारण अपना आकार प्रकार स्वयं बदल नहीं  सकता और न मिश्र योनि सम्बन्ध  से वंश चल सकता है "

अब आगे बताते है कि मनुष्य  बन्दर आदि पशु विभाग का प्राणी नहीं  है ।

अक्षरविज्ञानं भाग २ =>http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_25.html
अक्षरविज्ञानं भाग ४ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_29.html