।। ओ३म् ।।
इसे विकासवाद कहे या ह्रासवाद ?
शब्द के साथ अर्थका विचार करनेपर सहसा यह प्रश्न उपस्थित
हो जाता है, कि "क्या शब्द के साथ अर्थका कोई स्वाभाविक सम्बन्ध
है ? क्या आदि सृष्टि मे पैदा हुए मनुष्य बोलते थे ?
यदि बोलते थे तो शब्द
अर्थका संयोग कुदरती रीतिसे उनको मिला था या क्या ?
यदि अर्थज्ञानका
सम्बन्ध उनको पैदा होते ही मिला था तो
किसकी ओरसे मिला था ? क्या कोई अन्तरिक्षमे ज्ञानरुपी
चेतनशक्ति भी है ! " बस
यहीं तक प्रश्नों की गति है । यहीं तक प्रश्न श्रृंखला चलती है। इस
भावको सामने रखकर प्राचीन कालके ऋषियों
ने जो उत्तर दिया है उसे हम यहाँ नही लिखना चाहते किन्तु युरोपके विद्वानों
ने जो इसपर विचार किया है,
जिसके अनुसार उनके शास्त्र
बने है, और जिन शास्त्रों को पढकर लोग विकासवादी हुए हैं, उन
विचारों को, उस श्रृंखला को,
थोडे से,सारांश रुप में हम
यहाँ वर्णन कर देना चाहते है ।
(
क ) आजतक के युरोपीय
विज्ञान का निचोड़ यह है कि "
प्रकृति (मैटर) " का सूक्ष्मातिसूक्ष्म रुप ईथर ( आकाश ) है,
उसमें दो गुण है ।
पहिला-उसके परमाणुओं में गतिका होना,
दूसरा-उसकी गर्मी का क्रमक्रम कम होना । परमाणुओं कम्पन और तरंगबलसे,
शब्द, प्रकाश, गर्मी और विद्युत
आदि होते है और उसके ही क्रमक्रम ठंडा होने से वायुवीय तरल और कठोर
पदार्थ बनते हैं । इसी प्रकार ग्रह उपग्रह
भी बनते है, जिनमें से हमारी पृथिवी भी एक है,
यह सारा खेल एकमात्र ईथर ( आकाश ) का है । ईथर के
पूर्व उसपर सत्ता रखनेवाला कोई दूसरा ईश्वर ,
परमात्मा आदि नही है।
(
ख ) पृथिवी के हो जानेपर उसमें एक बीज पैदा हुआ,
उस बीजकी अनेक शाखाएं
होगई । अनेक शाखाओं में परिवर्तन
शुरू हुआ और वे शाखा वनस्पति तथा
प्राणी बन गई । प्रत्येक प्राणी अपने पिता
के गुण रखते हुए भी कुछ विलक्षण होता गया और अपने से विलक्षण अपने पुत्रको बनाता
गया । पुत्र भी इसी प्रकार विलक्षण वंशवृद्धि करता गया,
परिणाम यह हुआ कि बहुत कालके बाद मूलप्राणी अपनी पहिली
आकृति, प्रकृति से
बिलकुल ही विलक्षण होगया । तद्दत् प्रथम
बने हुए मूलबीज की अनेक शाखाओं में से एक शाखा के विकास का परिणाम यह मनुष्य भी है
। मनुष्यका बाप मेढक, छिपकली होता हुआ बन्दर हुआ और बन्दरसे वनमनुष्य होकर
मनुष्य होगया । भिन्न भिन्न देशवासी
मनुष्यों के रुपरंग भाषा और विश्वास से
ज्ञात होता है कि वे भिन्न भिन्न अनेक स्थानों
मे उपरोक्त क्रमानुसार पैदा हुए,
और एक दीर्घ कालतक एक दूसरे से अपरिचीत रहे । जिस प्रकार
रोजके अनुभव, तकलीफ, आराम, नफा, नुकसान के नतीजों ने धीरे धीरे ज्ञान
प्राप्त करते गये उसी तरह पहिले '
कूँ ,
कूँ '
'आँ ,
आँ '
'चूँ ,
चूँ '
'माँ ,
माँ '
आदि बोलते रहे और उसीसे अमुक अमुक पदार्थ लेते देते रहे,
धीरे धीरे वही कूँ कूँ आदि उस उस वस्तुके लिये शब्द
बनगये और इसी प्रकार भाषा बनगयी । इस विकासके अनुसार ज्ञान और भाषाकी उन्नति
वर्तमान समयतक पहुँची है,
जो सबके सामने है ।
यह चुम्बकरूप से वर्तमान युरोपीय
विज्ञानवेत्ताओं का अन्तिम और अटल सिद्धांत है । इसी को बुनियादी पत्थर
मानकर उनके दर्शन, वैद्यक, ज्योतिषादि सभी विद्याओं
के सिद्धांत कायम किये जाते है ।
और इसकी शिक्षा दीजाती है । आज
अंग्रेजी भाषा में इस विषयके हजारों ग्रंथ उपस्थित
हैं और रोज अनेकों ग्रंथ लिखे जा रहे है । इन ग्रंथोको देशी,
विदेशी सभी पढते हैं । और इन्हीं के अनुसार गुप्त व प्रकट अपना अपना विश्वास
रखते हैं ।
यद्यपि विदेशियों ने ही इन सिद्धांतों के खण्डन में
भी सैकडों ग्रन्थ लिखे है पर भारत में
आजतक इसके विरूद्ध सर्वांगको देखते
हुए एक भी ग्रंथ नही लिखागया । हम धार्मिक
सभाओं मे बड़े बडे़ बी.ए.यस्.ए.
विद्वानों को लेक्चर देते हुए और यह कहते
हुए देखते हैं कि हमारा धर्म,
हमारे सिद्धांत
पूर्ण और सच्चे हैं पर उसकी रक्षा
में उनकी महान् उपेक्षा है । शोक ! ! !
उपरोक्त विकास वादके सारांश में दो
पैराग्राफ है । एक ईथर से लेकर पृथिवी तक,
दूसरा बीजसे लेकर आजतक । इस दूसरे सिद्धांत का विस्तृत उत्तर आगे चलकर इसी प्रकरण में दिया जायेगा किन्तु पहिले पैराग्राफ का उत्तर यहीं
दिये देते है । पहिले पैराग्राफ मे
कुंजीकी बात, तत्त्वकी बात एक ही है जिसको हम यहाँ
फिर दोहराये देते है ।
" युरोपका विज्ञान प्रकृति मे परिवर्तन मानता है । वोह मानता है कि ईथर क्रमक्रम ठंडा
हो रहा है, इसीसे उसकी हालत बदलती रहती है " । युरोपीय विज्ञान को यह बात विवश होकर माननी पढी है,
संसारका प्रत्येक
पदार्थ नया,
पुराना, बनता, बिगड़ता, जवान, वृद्ध होता देखने में
आता है । सूर्यकी गर्मीका कम होना,
समुद्र का धीरे धीरे सूखते जाना,
पहाडों का टूटना
आदि सभी तो परिवर्तन शील दृश्य हैं, इसीसे
उसे भी परिवर्तनशील मानना पडा है । किन्तु
अब हम उससे पूछते है कि - " क्या परिवर्तनशील होना किसी
पदार्थ का स्वाभाविक गुण हो सक्ता है ?
क्या स्वभाव में परिवर्तन
हो सक्ता है " ? ?
कभी नहीं - हरगीज नहीं
. स्वभाव में परिवर्तन नहीं
होता । परिवर्तनशील होना स्वाभाविक
गुण नहीं है । जब स्वभाव में परिवर्तन
नहीं होता ( उदाहरण के लिए ) जब घड़ीका
सुईका घूमना स्वाभाविक नहीं है तब इस प्रकृति का सूक्ष्म से स्थूल होना ईथर
की गर्मीका क्रम क्रम ठंढा होना और संकुचित
होना कैसै स्वाभाविक हो सकता है ,
क्या इसकी गर्मी कम होते होते किसी दिन बिलकुल ही कम न
होजायेगी ? क्या फिरती हुई घड़ीकी सुई किसी न किसी दिन बन्द न होजायेगी ?
घड़ीकी सुई फिरती हुई एक दिन जरूर ठहर जायेगी । उसी तरह ईथरकी
गर्मी कम होते होते एक दिन बिलकुल शीतल होजायेगी । '
कम होना ' यह अस्थायी गुण है । जितने अस्थायी पदार्थ है सब परिवर्तनशील होते हैं
और जितने परिवर्तनशील पदार्थ हैं सब किसी न किसी दिन स्टॉप हो
जाते है - ठहर जाते है । अतः यह सृष्टि भी
परिवर्तित होती हुई किसी न किसी दिन अवश्य
स्टॉप हो जायेगी - ठहर
जायेगी ।
यह भी एक दार्शनिक नियम है कि जो चीज कहीं जाकर ठहरती है वह जरुर कहीं न कहीं
से चली हुई होती ? अर्थात् जो चीज
किसी दिन ठहरने वाली है वह किसी न किसी दिन जरूर चली है मतलब यह कि जिसका अन्त है,
उसका आदि भी है । और जिसका आदि है,
उसका अन्त भी है ।
घड़ी
किसी न किसी दिन ठहरेगी । अतः वह किसी न किसी दिन जरुर चली है । पर याद रहे कि घड़ी स्वयं
नहीं चलपडी थी, किसीने
उसे चलाया था और चलानेवाला चेतन ( ज्ञानी ) था
इसी प्रकार इस परिवर्तनशील अर्थात् किसी दिन ठहर जानेवाली और किसी दिन चली हुई
प्रकृतिका चलानेवाला भी कोई दूसरा था और निसंदेह
चेतन ( ज्ञानी ) था अन्यथा इसके चलाने की उसे याद ही कहासे आती !
यदि प्रकृति मे स्वयं चल पडनेका ज्ञान होता तो इसमें परिवर्तन
न होता क्योंकि स्वभाव में परिवर्तन
कभी कही , हलचल आदि अस्थिर गुण नहीं
होते 'स्वभाव' नाम ही उस पदार्थ
का, जो अपने द्रव्य के साथ नित्य और एक रस रहे,
किन्तु यहाँ मैटर
में उसके स्वभाव-विरूद्ध,
दो बड़े संयोग
नियोगात्मक परस्पर विरोधी गुण एक काल
में एकही जगह,
नियमबद्ध होकर काम करते हुऐ देखे जाते है,
इससे सिद्ध होता है कि इस प्रकृति में कृत्रिम और अस्थिर गुण किसी दूसरी जबरदस्त ताकदकी ओरसे डाले
गयें हैं
इसी सिद्धांत को लेकर सांख्यकार
कहते है कि -
'
अकार्यत्वेऽपि तद्योगः
पारवश्यात् ' 3/55 ।।
कार्य न होनेपर भी
इस प्रकृतिका योग जबरदस्ती कराया गया है।
अर्थात् कार्यरुप होना यद्यपि इसका स्वभाव नहीं है तथापि
इस काम में यह जबरदस्ती लगाई गई
है । जिसने इस कार्य में लगाया है,
सांख्यकार कहते है कि
:-
स हि सर्ववित् सर्वकर्ता 3/56 ।।
वह महान् शक्ति निसंदेह सर्वज्ञ और सर्वकर्ता है । उसी महान
शक्ति को हम लोग परमात्मा कहते है । फिर
सांख्यकार कहते है कि हमलोग
ईदृशेश्वरसिद्धिः सिद्धा 3/57 ।।
इस प्रकार ईश्वर की
सिद्धि सिद्ध करते है ।
पाठक ! नियम में बँधी हुई इस परिवर्तनशील प्रकृति को किसी
विज्ञानमय व्यापक शक्ति ने कार्य में
नियुक्त किया है ,
अतः मानना पडेगा कि प्रकृति के ऊपर
भी - ईथर ( आकाश ) के ऊपर भी एक ज्ञानवाली चेतन शक्ति है जिसके आधिन यह सारी प्रकृति और उसकी रचना है
। उसी प्रबल न्यायी शक्तिने जीवों पर दया
करके उनके कर्म फलों को देने दिलाने के
लिये इस सृष्टि की रचना की है ।
हाथ से फेंका हुआ रोडा जिस प्रकार पहिले क्षण मे तीव्र
गतिवाला होता है और अन्त में मन्दगति होकर
गिर जाता है । इसी प्रकार यह प्रकृति भी आदि में
अधिक वेगवाली थी । उसका वेग अब क्रमक्रम घटता जाता है । यद्यपि वह नये नये ग्रह उपग्रह चाहे अब भी बनाले पर
स्मरण रहे कि वे ग्रह उतने टिकाऊ न होंगे,
जितने पुराने थे । वे ग्रह और अन्य सारे ग्रह उपग्रह किसी न
किसी दिन रोडेकी भाँति क्षीणगति होकर गिर जायँगे-सारी प्रकृति ठहर जायगी-और महाप्रलय होजायेगी । अतः इस क्षीणप्राय दशाको 'ईवोल्यूशन थियरी '
वा '
विकासवाद '
नाम रखना सरासर विज्ञानके विरूद्ध है । मेरी राय में यदि
इसे 'डिवोल्यूशन थियरी '
वा '
ह्रासवाद '
कहाजाय तो कोई बात नहीं ।
पाठक ! जब विकासवाद ही सिद्ध
नहीं होता तो क्रम क्रम उन्नतिका
सिद्धांत कैसे कायम रह सकता है,
और कैसै माना जा सकता हैं? कि
निकृष्ट प्राणियों से उत्कृष्ट
प्राणी बने बन्दर से मनुष्य बना ? अतएव उपरोक्त
युरोपीय विज्ञानके प्रथम
पैराग्राफ के सारांश का समाधान होगया ।
अक्षरविज्ञान भाग २ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_25.html यहाँ क्लिक करके पढ़े
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